फैज़ान की दुनिया
बहुत ज़ोर की बारिश से फैज़ान परेशान हैं. इसलिए नहीं की छत टपक रही है. बार-बार उठकर दरवाज़े से सड़क पर भीगती मलीना को देख कर भिन्ना रहे हैं. मलीना की ठिठुरती आहें न जाने फैज़ान को क्या करने पर मजबूर कर दें. फिलहाल तो सिर्फ सोच रहे हैं, इन बादलों की ज़ोर-आज़माइश से उसे कैसे बचाएँ! फिर ख़याल आया तो सरपट दौड़ पड़े. अमूमन ये नहीं होता, फैज़ान अगर चाहें तो दीवार पर चिपकी सुस्त से सुस्त छिपकली को भी आलस का पाठ पढ़ा दें. खैर, भीगते भागते दबे पाऊँ आखिरकार मलीना को अपने घर ले आये. दबे पाऊँ ताकि कोई उन्हें ये करते देख न ले, क्यूंकि उनके पास सरगम है, गर्म कम्बल है, सात का नंबर का जूता है पर किसी के भी सवाल का जवाब नहीं. बदले में सिर्फ सवाल हैं. ढेरों सवाल.
अब फैज़ान के ख्वाबगाह का हाल कुछ यूँ हैं...washing मशीन के ऊपर कुछ ज़रा नाराज़ सा बूढा टीवी, उसके ऊपर २ किलो कपडे, खिड़की पर इन्क़लाबी लाल परदे, गद्दे पर बूंदे बटोरते लाइन से लगे बर्तन जिनका सरगना है एक नीला टब. दूसरी और एक बड़ा शीशा - उसके आस पास मंडराते दिवाली के चीनी जुगनू. कुछ ज़रा मुश्किल से चलने वाला पंखा और ६ फूट लम्बा उस पंखे का बांस का दरोगा. Fridge के नाम पर अलमारी और अलमारी के नाम पर कबाडखाना और इन सबको टेढ़ी आँख देखता थोडा ढीठ सा gas stove जैसे मकान मालिक का जासूस. लेकिन फिर भी फिज़ा में हालातों को पछाड़ती सुकून की खुशबू.
वो देखिये, उस और, दरवाज़े से सटकर गहरे नीले रंग की चादर ओढ़े आराम फरमा रहीं हैं फैज़ान की बाईक मलीना
इस बरसाती को कमरे का झूठा दिलासा तब दिया गया जब फैज़ान को दिल्ली में नौकरी मिली. वो बीते दो सालों से सरकारी किताबघर में लाइब्रेरियन हैं. फैज़ान के दिन की रूहानी फ़रहात है ये Library - कभी भूले से भी छुट्टी नहीं ली और इरादा रखते हैं की लेंगे भी नहीं. मोहल्ले की एक लड़की रोज़ ग्यारह बजे आती है - एक ही किताब 'नेरुदा की शायरी' का वज़न नाप कर दस मिनट में लौटा देती है - उसके अलावा यहाँ कोई आता जाता नहीं इसलिए फैज़ान और धूल दोनों शिद्दत से किताबें चाटा करते. फैज़ान की फितरत और सीरत किसी कल्ब-ए-शायर से कम नहीं. दुबले पतले, भारी आँखें, कमज़ोर दिल, उससे भी कमज़ोर ज़बान और हज़ारों ख़्वाबों की जागीर के वारिस. जब कोई नहीं देख रहा होता तो ये प्रेमचंद को हंस का खयाल देते फिरते, मजाज़ को इश्क की नाकामयाबी पार पाने के नुस्खे सुनाते या मंटो को और बेबाक होने का होसला देते. और जब इस सब से फुर्सत मिल जाती तो अपनी दुनिया से बाहर संजीदा, ज़हीन और तन्हा होने का ढोंग करते.
बाईक चलाने वाले फैज़ान का निकाह उनके हल चलने वाले अब्बू ने बिजनौर के ही किसी कसबे में पक्का किया. कई बार मिन्नतों के कलमे पढ़े गए लेकिन फैज़ान तैयार नहीं हुए. जब घरवालों से कुछ न बन पाया तो नब्बे के पार उनकी दादी ने फ़ोन पर ख़ुदकुशी की धमकियां बरसा दीं. क्या करते, बेमन हामी भर दी. लड़की का फोटो इ-मेल किया गया जो फैज़ान ने नहीं देखा.
निकाह के दिन मायूसियत के बादल लेके दुल्हन के दरवाज़े तक पहुंचे. कितना मन था की पेट में मरोड़ का बहाना कर के बिस्तर पे औंधे मुह लेटे रहे - जैसे स्कूल के दिनों में खूब किया पर वो ख्याल उसी तेज़ी से रवाना हुआ जितनी तेज़ी से आया. इसकी वजह दिमाग में घर करती न्यू अशोक नगर के मशहूर बिजनौर के हलवाई कादिर मियाँ के समोसों की महक थी. एक पल के लिए भूल ही गए की उनही की शादी है. थोड़ी ही देर में... - तब की तब - फिलहाल गरमा गरम समोसे का ख़याल - "किसी से मंगवा लूँ क्या? जेब में रख लूँगा. यहाँ इतनी गर्मी क्यूँ है? शेरवानी उतार तो देता पर - पहल अगर मौलवी साहब करें तो शायद इतना बुरा नहीं लगे - पर...
बेचारी उस लड़की का क्या जिसने किलो के हिसाब से गहने और टनों के हिसाब से शादी का जोड़ा पहना होगा? निकाह पढ़ते ही छः समोसे खाऊंगा - लेकिन चटनी कौनसी - लाल या हरी?" अभी ये ठीक से तय भी नहीं किया की अफरा तफरी मच गयी. सभी बाराती खाने पर बरसने लगे - ये भी उठ कर समोसा खाने चल दिए. अब अगर दुल्हन ही नहीं है, तो खाक दुल्हे की हया. अब तो सिर्फ भर पेट खाना. सोचा तो छः था लेकिन जेब में सिर्फ चार ही आ पाए. शादी न हो होने की वजह से फैज़ान को संगीन मलाल थे - अव्वल तो वो दो बाकी बचे समोसे और दूसरा काश उस लड़की की जगह वो भागे होते - दूर, कहीं दूर, दिल्ली से भी दूर. जब फैज़ान के घरवाले लड़की और उसके खानदान की बुराई करते-करते थक कर सो गए तो फैज़ान दाँतों में तिल्ली घुसाए उम्मीद कर रहे थे की वो दोनों via मेरठ बाईपास गए हों. वो ज्यादा आसान सफ़र रहेगा.
दो जुम्मों की छुट्टी लेकर गए तो थे पर दो ही दिन में library की धूल का काम बाँटने पहुँच गए. रोज़ की तरह ग्यारह बजे. वो लड़की आई - उसने वही किताब 'नेरुदा की शायरी' मांगी - एक बार फिर नापी और दस मिनट में ही वापिस लौटाई. लेकिन इस बार उसने फैज़ान की आँखों में अपनी नूरी आँखों का भार डालते हुए पुछा "आप पिछले दो दिन बीमार थे?" फैज़ान के जवाब कम और सवाल पर दो सवाल और होते हैं - इसलिए वो सिर्फ मुस्कुरा दिया - लेकिन उसके दिल में अजीब बादल गरज रहे थे. लड़की ने फिर पुछा - "आप सराए जुलेना में रहते हैं न?" फैज़ान ने इस बार हाँ कहने के लिए सर हिला दिया क्यूंकि दिल अब भी वही कमज़ोर सा और जुबां उससे भी कमज़ोर. लड़की तो जैसे किसी खुफिया मुहीम पर हो, एक सवाल और पूछ बैठी - "आप Neruda नहीं पढ़ते?" इस बार फैज़ान अपने आप को रोक नहीं पाया और इसके जवाब में दो सवाल पूछ ही दिए.
" इल्लियाँ (caterpillar) अगर पेड़ पर उगती तो क्या शहतूत की तरह उन्हें भी खाया जाता? या फिर अगर फूलों पर पंख होते तो आपके बालों में उन्हें कैसे अटकाया जाता?"
लड़की ने फैज़ान के ये सवाल साफ़ साफ़ सुने. वो झेंप गयी - लम्बी सांस ली और धीरे से मुड गयी. जाते जाते फिर वापिस आई, मुस्कुराई, उसने दोहराया - "Neruda पढ़ा कीजिये" और फिर चली गयी.
फैज़ान को यकीं नहीं हुआ. वो लड़की Neruda पढने को कह गयी... क्या यही उम्मीद-ए-रिश्ता है जिसके किस्से उसकी दुनिया के दोस्त सुनाया करते थे? उसके दिल में पहली बार ऐसे सवाल थे शायद जिनका जवाब हो...लेकिन इस पल भर के बुलबुले से उसे अपनी ढीट किस्मत पे ज्यादा ऐतबार था... उसे तो इस बात की ज्यादा ख़ुशी थी की उसने अपने सवाल आखिर किसी से तो पूछ ही लिए, उसने जो दिल में चल रहा था वो बयान कर दिया, फिर चाहे वो कितना ही बेहूदा क्यूँ न हो. बड़े अदब से उसने अपनी पीठ थप-थपाई - Neruda की किताब को और भी बड़े मन से पलटा जिसमे एक मोहर बंद ख़त पड़ा था - आज का नहीं - वो एक अरसे से फैजान की दुनिया में होकर भी फैजान से अनजान था. वो सोचता रहा, बार बार ख़त पढता रहा, "जितनी गहरी उस लड़की की आँखें उतनी ही गहरी उसकी लिखाई और उसका सब्र"
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Nice one